आरक्षण का इतिहास
भारतीय संविधान बनने से पहले, वर्ष 1930 में पहला गोलमेज सम्मेलन हुआ, तो उसमें बडे नेता शामिल ही नही हुये, फिर वर्ष 1932 में एक सम्मेलन हुआ था जिसका नाम गोलमेज था। इसमें इस बात की सहमति बनी थी कि आरक्षण होना चाहिए तो किस आधार पर। इस सम्मेलन में समाज के उन लोग जो सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े हुए है उनको सूची के आधार पर इनके लिए कुछ प्रावधान तय किया जाये ताकि इनको समाज के मुख्य धारा में लाया जा सके।
यह एक प्रावधान था, बाद में इसे सविधान में रखा गया था। और फिर इसे सूची के रूप में इसका नामकरण अनुसूचित जनजाति रखा गया। कुछ समय बाद इस सूची में एक नई सूची जोडी गई, जिसे अत्यंत पिछड़ा वर्ग नाम दिया गया था।
आरक्षण का वस्तव में मूल अर्थ प्रतिनिधित्व होता है। आरक्षण पेट भरने का माध्यम नहीं होता है, बल्कि आरक्षण द्वारा पिछडे समाज को प्रतिनिधित्व करने का मौका दिया जाता है, ताकि वे समाज में पहले की तरह दबे कुचले न जाये।
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आरक्षण जिस मूलभूत आधार पर शुरू हुआ, आज भारतीय सविधान में आरक्षण को उससे अलग ही पहचान दी गयी है। जिसका औचित्य अलग ही रूप में देखा जाने लगा है।
उस समय जब आरक्षण का प्रारूप बनाया गया था तो इसे 10 सालों के लिए तय किया गया था। आरक्षण को जब शुरु किया गया और उस समय इसे लागु करने का उद्देश्य तय किया गया तो, आरक्षण का आधार इतना था कि समाज के जो लोग उपेक्षित है उन्हें भी प्रतिनिधित्व करने का मौका दिलाया जाये।
आरक्षण सही मायने में इसकी मूल धारणा को समझना होगा । जब आप अलग अलग लोगों से इस विषय पर चर्चा करते हैं तो सब के विचार अलग-अलग दिखायी देते।
आज सोसियल मिडिया इस पर खूब चर्चा हो रही है, जब भी आप आपना सोशल मीडिया पेज खोलते हैं तो आपको लोग भारतीय संविधान में आरक्षण पर अवश्य लिखते मिलेेंगे। कुछ लोग पक्ष मेंं होगे तो कुछ विपक्ष मेें। लेकिन वास्तव में यह जानना चाहियेे कि भारत में आरक्षण का मानक क्या होना चाहिये? वर्तमान में आरक्षण की आवश्यकता वास्तव में किसे है? और आरक्षण का आधार वास्तव में क्या होना चाहिए?
आरक्षण से जहां एक तरफ किसी व्यक्ति के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाया जाता है वही दूसरी ओर कई लोगों के अधिकार क्षेत्र में स्वतः कमी आ जाती है।
अतः सामाजिक समरस्ता को ठेस पहुंचाने में आरक्षण पूरी तरह जिम्मेदार है।
जिन परिस्थितियों से कमजोर, बंचित लोगों को उभारने के लिए आरक्षण 10 वर्षो के लिए लाया गया, आज वे परिस्थितियां कितनी सुधरी हैं? इसका मूल्यांकन कोंन कर रहा है? इसका किसी भी स्तर पर किसी के पास जवाब नहीं है।
जिसे मिल रहा वो हर हाल में मस्त है।
जिसे नहीं मिल रहा वह हर हाल में पस्त है।।
आरक्षण, राजनीतिक पार्टियां का वोट बैंक का मुद्द क्यों?
आज भारत की सभी राजनीतिक पार्टियां बेशक इस मुद्दे पर बहस करना चाहते हैं ताकि किसी तरह सें उनका वोट बैंक बचा रहें। वास्तव में ऐसे मुद्दे, जिनको पहले से ही राजनीतिक पार्टियों ने बलि का बकरा बनाया था, आरक्षण उनमें सबसे अधिक चर्चित विषय है। इस मुद्दे को केेेेवल भुनाने के लिए, राजनीतिक दल रातदिन एक करके, एक दूसरे पर छीनाझपटी करते हैं। उनके राजनीतिक गुरुओं ने स्पष्ट किया रहता है कि ये मुद्दा है जो अधिकतम लाभ दिला सकता है।
ये एक ऐसी संवैधानिक चूक है जिसे किनारा कर पाना तबतक संभव नहीं लगता जबतक आरक्षण के आड़ में छुपी वोटबैंक की राजनीति अंतिम कगार पर न हो। अतः भुनाओ खूब भुनाओ। जी-जान से भुनाओ।इसके अतिरिक्त राजनीतिक पार्टियां कुछ नहीं कर सकती हैं।
इतिहास में उस समय काल को ध्यान में रखते हुए संविधान की परिकल्पना की कोशिश करने पर पता चलता है कि मुद्दे की जड़ कुछ हद तक जातिगत आरक्षण के आधार पर जुड़ा हुआ है। आखिर ऐसा क्यों? संविधान के अनुसार इसे जानने की कोशिश करेने पर हमें पता चलता है कि जिस समय यह सविंधान में रखा गया, उस समय इसकी मांग अवश्य थी। तभी बाबा साहेब ने इसको रखा रचा और पूरी जिम्मेदारी से पारित कराया था। इस बात को कोई भी व्यक्ति नजरअंदाज नहीं कर सकता है।
वर्तमान भारत में इस मुद्दे पर संविधानिक स्तर पर चर्चा जरूर होनी चाहिए।
लेकिन आरक्षण होना चाहिए या नहीं यह एक अलग मुद्दा है। आम लोगों की राय हमेशा जातिगत आरक्षण पर आ कर टीक गई है।
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